वो हुनर नही मालूम मुझे
की जिससे
तुझे रोक लू
या की
तेरी यादों की घटरी को भी
तेरे साथ ही कर दूँ रुखसत
अपनी अमानत की पोटली से निकाल कर
मैंने तो धड़कने अत कर दी तुझे
मगर वो अदा नही मुझमे
की तेरे दिल को बांध कर रख सकू
अपनी रवानगी तक
मेरी चाहत हमेशा जुडी रही तेरे साथ से
और तेरी चाहत अक्सर मुडती रही किसी
अंजन मोड़ की तरफ
तू सागर था
मैं थी दरिया
तेरे करीब आते आते यूँ फांसला बढा
कि सागर में दरिया मिल न सका
और दरिया;;;;;;;;;;;;;;;;दरिया भी न रहा
Monday, April 19, 2010
Monday, April 5, 2010
जाने क्यों
जाने क्यों तेरी आँखों में अपने लिए नजर तलाशती हूँ
जाने क्यों मैं किराये के मकान में घर तलाशती हूँ
पत्थर तो होते है आखिर पत्थर होई
फिर क्यों कर मैं उनमे रहबर का असर तलाशती हूँ
हाथ की लकीरे क़दमों के यूँ खिलाफ हो गई है
सजा ए जिंदगी मुकरर कर
बाकी सजाये मुआफ हो गई है
तेरी चाहतों का भी हिज्र है
और मेरी मंजिले भी हिजाब में
तक़दीर की बेवफाई का आलम यूँ है की
बाहर मौसम बहारों का है
और मेरे सारे फूल पड़े है
किसी किताब में
Subscribe to:
Posts (Atom)