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Monday, April 19, 2010

वो हुनर

वो हुनर नही मालूम मुझे
की जिससे
तुझे रोक लू
या की
तेरी यादों की घटरी को भी
तेरे साथ ही कर दूँ रुखसत
अपनी अमानत की पोटली से निकाल कर
मैंने तो धड़कने अत कर दी  तुझे
मगर वो अदा नही मुझमे
की तेरे दिल को बांध कर रख सकू
अपनी रवानगी तक
मेरी चाहत हमेशा जुडी रही तेरे साथ से
और तेरी चाहत अक्सर मुडती रही किसी
अंजन मोड़ की तरफ
तू सागर था
मैं थी दरिया
तेरे करीब आते आते यूँ फांसला बढा
कि सागर में दरिया मिल न सका
और दरिया;;;;;;;;;;;;;;;;दरिया भी न रहा

1 comment:

स्वप्निल तिवारी said...

तेरे करीब आते आते यूँ फांसला बढा
कि सागर में दरिया मिल न सका
और दरिया;;;;;;;;;;;;;;;;दरिया भी न रहा

hmm....achhi baat...potential hai aapme..likhti rahiye.. shabdon ki shudhata par zara dhyan dijiye.. :)