Monday, April 5, 2010
जाने क्यों
जाने क्यों तेरी आँखों में अपने लिए नजर तलाशती हूँ
जाने क्यों मैं किराये के मकान में घर तलाशती हूँ
पत्थर तो होते है आखिर पत्थर होई
फिर क्यों कर मैं उनमे रहबर का असर तलाशती हूँ
हाथ की लकीरे क़दमों के यूँ खिलाफ हो गई है
सजा ए जिंदगी मुकरर कर
बाकी सजाये मुआफ हो गई है
तेरी चाहतों का भी हिज्र है
और मेरी मंजिले भी हिजाब में
तक़दीर की बेवफाई का आलम यूँ है की
बाहर मौसम बहारों का है
और मेरे सारे फूल पड़े है
किसी किताब में
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2 comments:
जाने क्यों तेरी आँखों में अपने लिए नजर तलाशती हूँ
जाने क्यों मैं किराये के मकान में घर तलाशती हूँ
......इन पंक्तियों ने दिल छू लिया... बहुत सुंदर ....रचना....
JITNI TAREEF KI JAYE KAM HAI
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